Sunday, December 15, 2013

खूब याद हैं गुज़रे ज़माने के गुरुजन

हमें वो गुज़रा ज़माना भली-भांति याद है जब अपने शहर में शिक्षकों की प्राथमिकताओं मे एक अच्छा जिम्मेदार नागरिक और बेहतर शैक्षिक माहौल देना था। कुछ अपवादों को छोड़कर तमाम स्कूल-कालेजों के शिक्षक प्राइवेट ट्यूशन नहीं करते थे। ज्यादातर समर्पण की भावना रखते थे। क्योंकि उन्हें मालूम था कि परिवार संस्कार डालता है तो शिक्षक छात्र को इंसान बनाता है। आमतौर पर शिक्षक गरीब थे, परंतु उन्हें समाज में अति सम्मान का दर्जा प्राप्त था। उनका फोकस कुशाग्र छात्रों पर नहीं कमजोर छात्रों के प्रति था। कभी एक्स्ट्रा क्लास लेकर तो कभी उनके माता-पिता को परामर्श देकर। हमने भी ऐसी अनेक एक्स्ट्रा क्लासें अटेंड की थीं। शिक्षकों के पढ़ाने और बिगड़ैल व बैल छात्रों को सुधारने के तरीके अलग-अलग थे। कुछ प्यार से और कुछ ‘समझावन लाल’ यानी छड़ी से भय बनाते थे। हालांकि इसका कोई लाभ नहीं होता था। बिगड़ैल व बैल कभी नहीं सुधरते थे। यों छड़ी वाले मास्टरों का ज़बरदस्त जलवा था। बिगड़ैल छात्र भी खौफ़ज़दा रहते थे। मगर क्या मजाल कि कोई पलट कर चूं भी करे या बदले की भावना पाले। दरअसल उन्हें मालूम था कि किस कसूर की सजा मिली है। मजे की बात तो ये थी कि उस जमाने के मां-बाप भी बच्चे का दाखिला ऐसे स्कूल में कराना पसंद करते थे, जहां प्रशासन व प्रिंसिपल सख्त हो और छड़ी मास्टरों की भरमार हो। बेंच पर खड़ा करना या मुर्गा बनाना तो आम था ।

याद आती है 1969 इंटर बोर्ड की परीक्षा। सेंटर था कश्मीरी मोहल्ले का गिरधारा सिंह इंटर कालेज। सख्ती के लिए मशहूर प्रिंसिपल परीक्षा प्रारंभ होने से पूर्व कक्ष में आए और बोले जिनके पास ‘पुर्ची’ हो पांच मिनट में फेंक दें वरना बाद में तलाशी पर पकड़े जाने पर रस्टीकेट कर दूंगा। और यकीन नहीं होगा एक को छोड़ सब पुर्चियां फेंकने बाहर चले गए । हमें प्राइमरी से लेकर स्नातकोत्तर तक के लगभग सभी गुरूजनों के नाम, सूरतें और आदतें याद हैं। कुछ को तो अक्सर याद करते हैं क्योंकि अगर वे न होते तो जाने हम किस गटर में होते। विद्यांत कालेज के श्री गिरिजा दयाल श्रीवास्तव उर्फ जीडी बाबू हिसाब और अंग्रेज़ी पढ़ाते थे। उर्दू का खूब प्रयोग करते थे। काला और भूरा सूट पहनने के शौकीन थे। और हाथ में छड़ी। ये उनकी पहचान भी थी। जिस दिन सूट भूरा होता था उस दिन छड़ी खामोश होती थी। मगर जिस दिन सूट काला हो वो दिन सुताई दिवस होता था। उनकी छड़ी ने कइयों को ठीक किया। हम भी उन्हीं में रहे। तीन बार की सुताई तो आज भी याद है। एक बार क्लास कट कर फिल्म देखते पकड़े गए। दूसरी बार क्लास में नवाब पटौदी के इंग्लैंड के विरुद्ध दिल्ली टेस्ट में लगाए दोहरे शतक पर जश्न मनाने पर और तीसरी बार कालेज के बगल की गली में ‘कश’ लगाने पर। हम उनके ऋणी हैं कि उन्होंने हमें सपनों की दुनिया से बाहर निकाल जमीन पर खड़ा किया। एक अन्य टीचर श्री गणेश प्रसाद श्रीवास्तव, जिन्हें प्यार से गन्नू बाबू कहा जाता था, निहायत ही मृदुभाषी व शरीफ इंसान थे। गुस्से व छड़ी से कोई सरोकार नहीं था। उनसे हमने विनम्रता सीखी। ऐसी सरल शख्सियत दोबारा नहीं देखी। लखनऊ के प्रसिद्ध इतिहासविद व कवि योगेश प्रवीण ’योगेश’ उनके सुपुत्र हैं।

यूनिवर्सिटी के दौर में राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दौरान हमने डॉ राजेंद्र अवस्थी के रूप में एक अजूबा देखा था। वे रियल फिलॉसफर थे, अग्रणी विद्वान थे। प्लेटो की रिपब्लिक और अरिस्तू की पॉलिटिक्स जैसे ग्रंथ पढा़ते हुए वे सुकरात के ईसा पूर्व ग्रीक में पहुंच जाते थे जहां हम भी उनके साथ विचरण करने लगते थे। बहुत सख्त थे। नॉन-सीरियस छात्रों को क्लास शुरू होने से पहले बाहर कर देते थे। हमने उनसे भूत व भविष्य को विजुलाइज़ करके समझने का इल्म हासिल किया। वो समय बहुत ही अच्छा रहा । मेरे साथ के कुछ छात्रों ने आगे चल कर समाज व देश में अच्छा नाम पाया। इनमें मेरे सीनियर हरीश रावत केंद्रीय मंत्री, वीरेंद्र यादव सुप्रसिद्ध लेखक-समालोचक है व मजबूत कद-काठी के इजहार अहमद सख्त जेलर बने और सहपाठी व मित्र प्रमोद जोशी व विजयवीर सहाय ने पत्रकारिता में खूब नाम कमाया। निःसंदेह अच्छी शिक्षा व माहौल का इसमें खासा योगदान रहा।

आज का दौर पहले दौर से बिलकुल उलट है। सोच बदल गई है, सामाजिक मूल्य भी बदले हैं। शैक्षिक हों या निजी कोचिंग संस्थान, सब जगमगाते सात सितारा बाज़ार हैं, जहां गुरूजनों से लेकर छात्रों तक की बढि़या पैकेजिंग कर भरपूर मार्केटिंग होती है। कुछ भी हो, अपने समस्त श्रद्धेय गुरूजनों को याद करते हुए हम आज भी संत कबीर दास के इस दोहे के कायल हैं- गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पांय, बलिहारी गुरु आप हैं जो गोविंद दियो मिलाय।

वीर विनोद छाबड़ा
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